Hamari bachpan ki purani yadein
Hii गाइस आज मैं आपके लिए लाया हूं बचपन की बो यादें जिसे पढ़कर आपको अपना बचपन याद आ जयेगा…
तो चलिए सुरु करते ह…
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आज के दौर में बैलगाड़ी की सवारी करना संभव नहीं है
आज के आधुनिक युग में सवारी के बहुत सारे तेज़ साधन उपलब्ध है लेकिन जब हम छोटे थे तो मुझे याद है जब हमें नानी के घर जाना रहता था तो गांव से रेलवे स्टेशन आने के लिए उस समय बैलगाड़ी ही सहारा था आज के दौर में बैलगाड़ी की सवारी करना संभव नहीं है क्योंकि अब गांव में भी बैलगाड़ी देखने को नहीं मिलती है
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बचपन में कविताओं का अलग ही महत्व रहा है
बचपन में कविताओं का अलग ही महत्व रहा है .. भले ही वो बाल सभा की तैयारी के लिए हो या regular पाठों के बीच एक मन को प्रसन्न करने वाला भाव ..Exams में तो ज़रूर पूछी जाती थी कविता … कहते है यदि कविता को same भाव से पढ़ा जाता है तो .. कविता का purpose complete हो जाता है ..
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आज देखता हूँ तो पढ़ाई कितनी महंगी हो गई है।
आज स्कूलों में हर वर्ष किताबें बदलती है और जब हम पढ़ते थे उस जमाने में कई वर्षों तक किताबें नहीं बदलती थी। उस समय चाहे सरकारी स्कूल हो या प्राइवेट स्कूल सब में समान किताबे पढ़ाई जाती थी। जब हमारी वार्षिक परीक्षाएं चल रही होती तो हम अगली कक्षा के विद्यार्थी से बात करके पहले ही उसकी किताबें बुक कर लेते थे। उसके माता-पिता से अपने माता-पिता की बात करवा देते कि इसकी किताबें किसी को मत देना हम लेंगे। उस समय पुरानी किताबें आधे मूल्य में मिलती थी। वैसे तो हम भाई-बहनों नें 10वीं तक प्रायः हर कक्षा की पुरानी किताबें ही खरीदी थी। मुझे याद है एक बार मैंने किसी से कक्षा छः या सात की पुरानी किताबें ली थी जिनका नये सेट का बाजार मूल्य 28 रुपये था और हमने 14 रुपये में वह किताबें ली थी।
हम हमारी किताबें भी संभाल कर रखते थे। फटने नहीं देते थे इसके लिए गत्ते वाले कवर चढ़ाते थे। पापा-मम्मी घर पर बाइंडिंग कर देते थे। बाइंडिंग की हुई किताबें एक साल बाद भी पूरी तरह नई की नई लगती थी। अगले साल पहल करते किसी जरूरतमंद को दें यदि कोई जरूरतमंद नहीं मिलता तो किसी को आधे में बेच देते। पर प्रायः हमारी किताबों को लेने के लिए लोग पहले से ही तैयार रहते कि इनकी किताबें एकदम नई जैसी मिलेगी।आज देखता हूँ तो पढ़ाई कितनी महंगी हो गई है। सरकारी स्कूलों की और प्राइवेट स्कूलों की किताबें एक नहीं होती। उनके मूल्य में भी भारी अंतर रहता है। जहां सरकारी किताबें 150 – 200 रुपये की आती है वहीं प्राइवेट स्कूल की किताबें 1500 – 2000 से कम की नहीं आती है और अगले साल उन किताबों का कोई महत्व नहीं रह जाता, रद्दी बन जाती हैं। -
क्या आप इस पेड़ और इस पर दीख रहे सूखे पंखयुक्त बीजों के बारे में जानते हैं
क्या आप इस पेड़ और इस पर दीख रहे सूखे पंखयुक्त बीजों के बारे में जानते हैं ? निश्चित रूप से आज की पीढ़ी के बच्चे इससे अनजान हैं । लेकिन 80- 90 के दशक में बच्चे इस पेड़ पर लगे इन सूखे बीजों के पीछे दीवाने बने रहते थे । गर्मियों की छुट्टियों में दिनभर बच्चों का यही काम होता था कि छतों , खेतों आदि में बिखरे हुए बीजों को वे इकट्ठे किया करते थे और इनके पंखों को मसल- मसल कर चूरकर सूखे मेवे की तरह खाते थे । कभी गुड़ को गर्म कर थाली में जमाकर इन बीजों को गुड़ पर चिपका देते थे । इन पंखनुमा बीजों को बच्चे ‘बन्दर-पपड़ी’ कहा करते थे । कई जगहों पर इसे ‘बन्दर की बाटी’ ‘पापड़-पोया ‘ आदि नामों से भी पुकारा जाता था । इसके पेड़ को हमारे यहाँ ‘कणंज’ का पेड़ कहा जाता है ।।
इन बीजों को खूबसारी मात्रा में इकट्ठे करने के लिए बच्चे गर्मी की परवाह किए बिना इधर-उधर दौड़ा करते थे तो उन्हें बुज़ुर्गों की डाँट भी सहनी पड़ती थी और कभी -कभी तो पिटाई भी हो जाती थी लेकिन इन बीजों का टेस्ट बच्चों के मुँह को बहुत भाता था । आजकल के बच्चों के पास खाने -पीने की चीज़ों के की विकल्प हैं इसलिए उस आनंद से वे महरूम हैं । पेड़ और उनके बीज तो आज भी हैं , लेकिन कोई उनकी ओर झाँकता भी नहीं है । 80-90 के दशक तक की वे अनूठी यादें अब अतीत का हिस्सा हो चुकी हैं।agr apko hamari post pasand i ho to ise share karen
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